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बिहार में वोट नहीं, जाति गिनी जाती है? यही फॉर्मूला नेताओं को बनाता है 'बादशाह'

बिहार में जातीय समीकरण का मामला अब मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई से आगे बढ़कर नया इक्वेशन सेट कर रहा है. नया इक्वेशन यानी मंडल 2.0 प्लस वेलफेयर. यह नैरेटिव सोशल जस्टिस के नाम पर सेट करने की कोशिश जारी है. इन सबका लब्बो लुआब यह है कि बिहार में वोट डाला जाता है. जबकि जाति गिनी जाती है? ऐसा इसलिए कि बिहार की पॉलिटिक्स की पहचान यही है.

बिहार में वोट नहीं, जाति गिनी जाती है? यही फॉर्मूला नेताओं को बनाता है बादशाह
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बिहार में 'विकास बनाम पहचान' पर बहस हर बार चुनाव के दौरान लोग करते है, लेकिन जमीन पर उस हिसाब से सियासी समीकरण नहीं बदलते. जबकि मीडिया वाले भी इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं. इसके बावजूद, बिहार की राजनीति में यह धारणा आज भी पहले की तरह प्रभावी है कि 'जाति' से ही यह तय होगा, प्रदेश में किसकी बनेगी सरकार? MY (मुस्लिम यादव) से लेकर EBC (Mahadalit ब्लॉक) सामाजिक न्याय, से लेकर जाति जनगणना तक, हर नैरेटिव का एंड एक ही सवाल पर होता है: कौन-सी जाति, किसके साथ, कितने प्रतिशत?

जाति इक्वेशन का नया फार्मूला

यही वजह है कि बिहार में चुनाव आता है तो EVM से पहले एक्सेल खुलता है. सियासी पार्टियों की एक्सेल रो में जातियां, कॉलम में सीटों का विवरण होता है. चुनावी घोषणा पत्र में 'विकास' बोल्ड रहता है, पर वार रूम whiteboard पर सिर्फ 'कास्ट' ब्लॉक्स ही होता है. अब यह मामला मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई से आगे बढ़कर नया इक्वेशन सेट कर रहा है. नया इक्वेशन यानी मंडल 2.0 प्लस वेलफेयर. यह नैरेटिव सोशल जस्टिस के नाम पर सेट होता है. अब सारा लब्बो लुआब यह है कि बिहार में वोट डाला है. जबकि जाति गिनी जाती है? ऐसा इसलिए कि बिहार की पॉलिटिक्स की पहचान यही है.

कौन, किसके साथ?

बिहार में सामाजिक न्याय की इस राजनीति ने हाशिए पर रहे तबकों को सत्ता तक पहुंचा दिया, लेकिन उसी पावर ने जाति समीकरण का नया बेस भी तैयार किया. इसका नतीजा यह निकला कि हर पार्टी की पहली चिंता यही होती है कि कौन-सा community किसके साथ है?

सोशल इंजीनियरिंग: जातीय मतदाताओं की बदल ही पहचान

1990 के दशक की मंडल पॉलिटिक्स ने ओबीसी, ईबीसी और दलित प्रतिनिधित्व को मुख्यधारा में ला दिया. साल 2000 के बाद जाति समीकरण को साधना आसान नहीं रहा. ऐसा इसलिए कि बिहार में EBC (Extremely Backward Classes), महादलित, पसमांदा, सवर्ण वोट और अल्पसंख्यक वोटर्स ने अपनी अलग पहचान बना ली है. अब नेता सिर्फ 'MY' या 'सवर्ण बनाम दलित' जैसे जातीय समीकरण के भरोसे भी चुनाव नहीं जीत सकते, बल्कि छोटी जातियों और उपजातियों तक का हिसाब सियासी दलों के नेता रखने लगे हैं. बिहार में मंडल और कमंडल के बाद सोशल इंजीनियरिंग 2.0 यही है.

'विकास बनाम जाति' झगड़ा नहीं, जुगलबंदी है

बहुत लोग मानते हैं कि जाति की राजनीति और कल्याणकारी राजनीति एक-दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन बिहार में ये एक-दूसरे के पूरक हैं. यानी विकास करो पर, उसे उसकी जाति के नाम से पहचान दो.

बिहार में किस जाति की आबादी कितनी?

बिहार जातीय जनगणना 2023 के मुताबिक राज्य में सबसे ज्यादा आबादी अति पिछड़े वर्ग की है. अब बिहार में सवर्ण एक तरह से काफी कम आबादी में सिमट गए हैं. आबादी के हिसाब से अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36.01 फीसदी है, जिसकी संख्या 4,70,80,514 है. पिछड़ा वर्ग 27.12 फीसदी है, जिनकी तादाद 3,54,63,936 है. जबकि अनुसूचित जाति के 19.6 प्रतिशत हैं, इनकी आबादी 2,56,89,820 है. अनुसूचित जनजाति की आबादी 21,99,361 है जो कि कुल आबादी का 1.68 प्रतिशत है. अनारक्षित यानी जनरल कास्ट, जिसे सवर्ण भी कह सकते हैं की आबादी 2 करोड़ 02 लाख 91 हजार 679 है, ये बिहार की कुल आबादी का 15.52 प्रतिशत है.

बिहार में प्रमुख जातियों की आबादी

बिहार में मुसलमान- 17.70, यादव 14.26, कुर्मी 2.87, कुशवाहा - 4.21, ब्राह्मण- 3.65, भूमिहार- 2.86, राजपूत- 3.45, मुसहर- 3.08, मल्लाह- 2.60, बनिया- 2.31 और कायस्थ- 0.60 फीसदी हैं.

जाति का विकल्प क्या है?

बिहार में नैरेटिव सेट करने का रास्ता कास्ट को डिनाई करने में नहीं, उसे ग्लोरिफाइड कर पहचान देने में है. इसके साथ ही अब यह भी देखा जाने लगा है कि संबंधित जाति के लोगों की समृद्धि बढ़ी है या नहीं. या फिर दूसरों क तुलना में उसकी स्थिति क्या है? यानी जाति पहचान के उसकी समृद्धि को भी जोड़ दिया गया है.

कास्ट फैक्टर: क्या कहते हैं पटना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर?

कास्ट' बिहार में बहुत बड़ा फैक्टर : प्रोफेसर फजल अहमद

पटना यूनिवर्सिटी समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर फजल अहमद ने स्टेट मिरर के प्रतिनिधि द्वारा यह पूछे जाने पर कि बिहार चुनाव में कास्ट फैक्टर का कितना होगा असर, पर कहा कि जाति परसेप्शन पर लोगों का मन तो बदला है, लेकिन बदलने वालों की संख्या अभी भी बहुत कम है. इसलिए बिहार में जब भी चुनाव होता है, कास्ट परसेप्शन ही अल्टीमेट ट्रुथ होता है. वैसे तो इस फैक्टर का असर देश भर में है, लेकिन बिहार में हमेशा से यह बहुत बड़ा फैक्टर है.

प्रोफेसर फजल अहमद ने आगे कहा, 'कास्ट का असर' नॉर्मल लाइफ में लोगों के बीच अपना प्रभाव पड़ता नजर नहीं आता, लेकिन चुनाव आते ही इसका असर दिखाई देने लगता है. अधिकांश लोग आज जाति के आधार पर ही वोटिंग करते हैं. यह लंबे अरसे से चला आ रहा है. कास्ट का असर सदियों से हमारे समाज पर है, इसलिए इसे पार पाने में अभी लंबा वक्त लगेगा.

यू पूछ जाने पर लोगों को इससे क्या मिलता है, इस पर उन्होंने कहा कि दरअसल, सेम कास्ट लोने से लोगों को सुरक्षा को बोध होता है. फिर लोग यह सोचते हैं कि किसी और वोट दें, इससे अच्छे अपने कास्ट वाले प्रत्याशी को वोट दें. अगर वो जनप्रतिनिधि बना अपने समान जाति के को मजबूती मिलेगी. जहां तक विकास की बात है, तो इस बारे में कौन सोचता हैं? यह दौर कब तक चलेगा, कहना अभी बहुत मुश्किल हैं.

जाति के बदले परसेप्शन, पर मीडिया को परवाह नहीं - योगेंद्र वर्मा, डीन लॉ फैकल्टी

बिहार चुनाव में जाति के असर को लेकर पटना यूनिवर्सिटी लॉ फैकल्टी के डीन और पटना लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल योगेंद्र वर्मा का का कहना है कि ये बात सही है कि चुनाव में हार जीत का फैसला 'जाति' से तय होता है. इसका दूसरा पहलू यह भी है कि पिछले कुछ दशकों में जाति का असर कम हुआ है. अब लोग विकास, आर्थिक सुधार और प्रशासनिक स्तर पर मिले भागीदारी की वजह से उन नेताओं को वोट दे रहे हैं, उन्हें वोट देने के बारे में वो सोच भी नहीं सकते थे. अब यादव बेल्ट में भी बीजेपी और जेडीयू के प्रत्याशी चुनाव जीतते हैं.

योगेंद्र वर्मा के मुताबिक बिहार में चुनावी राजनीति की वजह से 'जाति' का अलग परसेप्शन बनाया गया है, लेकिन उसमें जो बदलाव आया है, उसे मीडिया नहीं दिखाती. न ही मुख्यधारा की मीडिया और न ही सोशल मीडिया. सभी को मसाला चाहिए. चूंकि, बिहार चुनाव में जाति बिकता है, इसलिए सभी उसकी बात तो करते हैं, पर उसमें आए बदलाव को नहीं दिखाते हैं न ही चर्चा करते हैं.

लाखों की संख्या में मिले सरकारी नौकरी मिलने से बदले परसेप्शन

योगेंद्र वर्मा का कहना है कि सरकारी स्कूलों, पुलिस, स्वास्थ्य विभाग, जिला व खंड स्तरीय प्रशासन व अन्य सरकारी विभागों में जो लोगों को नौकरियां पिछले 20 साल के दौरान मिली हैं, उसका असर अब लोगों की सोच पर देखने को मिलता है. इस बात को बिहार में रहने वाले लोग जानते हैं. आप माने या न मानें, एनडीए व नीतीश कुमार की सरकार 'जातिगत समीकरण' कमजोर जरूर किया है. नित्यानंद राय यादव हैं, पर बीजेपी नेता है. इसी नही तो राम कृपाल यादव, भूपेंद्र यादव, नंद किशोर यादव आदि बीजेपी नेता हैं. अगर हम यादव समाज की बात करें तो लालू यादव का यादव अब यादवों में उतना नहीं है. आज के युवा सियासी समीकरणों को अपने हिसाब से समझने लगे हैं, जितना समझते हैं, उस पर अमल भी करते हैं.

उन्होंने इस बात को व्यापक नजरिए से देखिए पप्पू यादव हैं, उन्होंने लालू खिलाफ जाकर चुनाव लड़ा और जीते भी. साफ है कि अब जाति उतना बड़ा फैक्टर नहीं रहा. यह स्थिति क्षेत्र और डेमोग्राफी के हिसाब से प्रभाव डाल रहा है. इसमें लोग यह देखने लगे हैं कि उनके क्षेत्र का प्रत्याशी कौन है, क्या वो काम करने वाला है या नहीं. महिलाओं को इस मामले नजरिया बड़े पैमाने पर बदला. बिहार की महिलाएं सही मायने अब अपने मन से वोट डालती हैं. महिलाओं को लेकर जिस तस्वीर को उकेरा जाता है उसे भूलने की जरूरत है.

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